Monday, September 2, 2019

रविवारी- हर चेहरे में कहानियों का बाज़ार

रविवारी बाज़ार में खींची गयी एक तस्वीर


रविवारी.... 
जहां आपको घर से लेकर बाजार की हर छोटी बड़ी चीजें मिल जाएंगी, 
जहां आप किताबें हों या फर्नीचर, सब सैकेंड हैण्ड खरीद सकते हैं 
जहां पशु भी मिलते हैं और पशुओं का चारा भी 
शादियों के कुछ ज़रूरी सामान- संदूक, बक्सा, कांसे-पीतल और स्टील के बर्तन भी 
यहां किसी भी एंटीक चीज़ को नया रंग नहीं दिया जाता 
और न ही सुगढ़ता का कोई परिचय है 
बेतरतीब-सी बिखरी हुई चीजें 
बोली लगाते दूकानदार और
मोल भाव करती एक भीड़
अनेकों चेहरे दिखेंगे, पसीने से तर 
कोई हंसता हुआ तो किसी के माथे पर शिकन की लकीरें
कहीं थकन के बादल तो कहीं उत्साह उमंग 
कोई चाय की चुस्की के साथ 
कोई पुदीने वाले निम्बू पानी के साथ 
कोई दालवडे का स्वाद लेते हुए,
 तो वो एक बूढ़ी अम्मा 
जो चारपाई पर कुछ पुराने से कपड़े बिखेर कर बैठी है बेचने को, 
अपने पल्लू में चेहरा ढांपकर, हौले-हौले चावल खाते हुए 
इतनी सी ही तो कहानी है 'रविवारी' की 
बस इतनी सी, नहीं इतनी सी नहीं है 
जनाब शतकों का इतिहास है
और यकीन मानिए बहुत ही खास है 
सुना है कभी साबरमती के किनारे लगा करता था ये बाज़ार 
और आज 'रिवर फ्रंट मार्किट' हो गया है 
साबरमती घटती गयी और बाज़ार बढ़ता गया 
'सॉफिस्टिकेटेड' लोगों को शायद ये भीड़-भाड़ वाली जगह लगे 
और किसी एंटीक लवर को जादुई खज़ाना 
तो ज़रूरतमंदों के लिए उनका सुपर मॉल 
और मेरे जैसों को शायद उनकी लेखनी का सुकून मिले यहां 
जहां जितनी दूर नज़र जाये बस ये बाज़ार ही बाज़ार नज़र आता है!

Wednesday, July 24, 2019

चाय



कभी अदरक के तीखेपन के साथ,
तो कभी इलायची की महक वाली चाय,
काली मिर्च, लौंग की धसक,
तो कभी कुल्हड़ वाली चाय
गाँव के आंगन में चूल्हे पर चढ़ी,
धीमी-धीमी आँच पर पकी वो गुड़ वाली चाय
या फिर तेज गैस पर उबाले लेने वाली
वो हाफ कटिंग, कितली वाली चाय,
किसी के लिए सुबह जागने का सहारा है
तो किसी की थकन मिटाने वाली चाय,
घर की रसोई में भरती कभी रिश्तों में गर्माहट,
तो कभी नुक्कड़ पर दिल के रिश्ते बनाने वाली चाय!!

तस्वीर साभार: भरत बोराणा

Saturday, May 4, 2019

शहर बनते देखा है



एकड़ में नपती ज़मीन को, per square foot में 
आसमान-सी छत को, गज़ भर बालकनी में 
और बड़े-से खुले आँगन के सीने पर 
फ्लैट्स वाली ऊँची इमारतें बनते देखा है 
धरती की गोद में सोना उगाने वालों को 
दिहाड़ी-मज़दूरी के लिए भटकते देखा है 
और अन्नदाता को भूखे मरते देखा है 
जहाँ पैरों से धूल उड़ा 
मिट्टी की खुशबू लिए फिरते थे 
गाँव की उसी मिट्टी से 
मैंने शहर को बनते देखा है 




(Image Courtesy: Down to Earth Magazine)

Wednesday, February 6, 2019

'किनारी वाला दुपट्टा'



हाय! कितना फबेगा ना.. वो नीले वाले सूट के साथ
‘हाँ… तेरा नीला सूट अच्छा है, पर क्या फबेगा उसके साथ; तूने कोई नए झुमके लिए क्या?’
अरे…. झुमके नहीं, वो दुपट्टा, यार
'उफ्फ़... कौन-सा दुपट्टा…’
अरे वही...
वो लाल किनारी वाला…
‘अच्छा, वही वाला… जो तेरी बड़ी माँ किसी को छूने भी ना देतीं’
हाँ यार, वही वाला
बस एक बार बड़ी माँ दे दें पहनने को,
मैं ये सब शिकायतें गायत्री को सुना ही रही थी कि 'अरी ओ मंझली की छोरी.. कहाँ मर गयी है, अब ये कपड़े सुखाने के लिए निमंत्रण भिजवाएं’
हे कान्हा जी, ये बड़ी माँ भी ना. ‘जी... बड़ी माँ बस आ रही हूँ… वो मेरी सहेली आ गयी थी किताब लेने.’ बड़ी माँ की गरज़ सुनकर तो बारिश भी आते-आते रुक जाये, तो फिर गायत्री कहाँ ठहरने वाली थी. वो भी रफ़ू-चक्कर हो गयी और मैं सरपट दौड़ते पहुँची छत पर.
‘जी बड़ी माँ, वो मैं बस किताब देने गयी थी दरवाजे तक’
'हाँ हाँ, और फिर वहीं की हो के रह गयी. बस बात नचकाना ही तो आता है शहज़ादी को, बाकी काम के लिए तो हम हैं ना’
‘नहीं, बड़ी माँ..’
‘जा... जाकर कपड़े सुखा और फेर चाय बना दिए. साँझ हो ली है, पर इस चिरैया को कोई खबर ही ना.’ ये मेरी बड़ी माँ भी ना, पूरा दिन बस हुक़्म चलाती रहती हैं और इनकी चाय. वो तो जैसे कोई और बना ही नहीं सकता ना घर में.
'खुद से के बतरा री है छोरी'
‘कुछ ना दादी, पहाड़े याद कर री थी, करते रहने चाहिए न, वैसे भी कल मैथ का पेपर है, काम आएंगे’
'हम्म... पढ़-लिख लेगी तो लाग जागी कोई मास्टरनी, नहीं तो छोरियों को जीवन तो बासन-चौका में ही निकल जावे है…’
चलो, कोई तो है इस घर में, जिसको घर की इस इकलौती लाड़ली पर लाड़ आता है.
‘अच्छा, एक कप चाय अपने बाबा लई भी बना लिए.. ठीक है’
मेरा चेहरा सहला कर दादी भी दादा के कमरे की तरफ हो लीं. बाबा-दादी को चाय देकर बड़ी माँ के कमरे गयी तो.. बड़ी माँ के हाथ में, हाय! वो किनारी वाला दुपट्टा. कितने प्यार से सम्भाल के रखा है बड़ी माँ ने. इतना पुराना है पर फिर भी एक धागा इधर का उधर नहीं और होगा भी कैसे, कभी हाथ तक तो लगाने ना देती हैं किसी को.
‘बड़ी माँ, चाय’
मेरी आवाज़ सुनते ही, पता नहीं क्यों पर बड़ी माँ ने दुपट्टा झटपट अलमारी में रख दिया. मैं कौन-सा छीन लेती उनसे.
‘हाँ, धर दे वहां.’
‘जी… बड़ी माँ, वो दुपट्टा….’
‘क्या?’ बड़ी माँ ने आँखे चढ़ाकर पूछा. जी वो, वो दुपट्टा…
अब इतना सुनकर उनके कमरे में बैठना तो दूर कोई खड़ा भी नहीं हो सकता. मुझे तो ये समझ नहीं आता, कि इतने चटक रंग के दुपट्टे का उन्हें क्या काम?  वैसे भी, बड़ी माँ तो हमेशा इतने फीके रंग के कपड़े पहनती हैं. कोई साज-सिंगार का सामान भी ना रहता उनके पास. पता नहीं, फिर इस दुपट्टे में जान अटका के क्यों बैठी हैं।
‘कहाँ चहकती फिर रही है, परीक्षा खत्म हो जाएँ औलाद की, फिर तो जैसे पढ़ाई से कोई नाता ही ना, है ना’
माँ, अब पेपर खत्म होने के बाद क्या पढूँ और वैसे भी बस यहीं गायत्री के घर तक गयी थी.
‘अच्छा, इस मटरगस्ती में ये भी याद राखिये कि कल रिजल्ट है तेरा’
‘हाँ माँ… याद है’
'बस ठाकुर जी कृपा करें और तेरे बढ़िया से नंबर आ जाएँ, तेरे बाप-दादा को भी तसल्ली रहेगी कि तेरी पढ़ाई में पैसा बर्बाद ना जा रहा'
माँ भी ना, कभी जताने से ना चुकती हैं कि मुझे पढ़ाकर तो अहसान किया जा रहा है ना. हर बार क्लास टॉप करती हूँ. ‘माँ, आप मुझे ही कहें बस, कोई कभी घर के नवाबज़ादे से भी कहे कि वो भी कुछ किया करे आवारागर्दी के आलावा’
'उससे तुझे क्या, उसका उसकी माँ जाने और वो तो छोरा है... निरी ज़मीन-जायदाद पड़ी है उसके लिए. पर तूने तो कुछ बनना है, बस ढंग से पढ़, कोई इधर-उधर की बात नहीं'
‘अरे.. पर ज़मीन-जायदाद तो ये मेरे बाप-दादा की भी है ना’
‘हाँ, पर छोरियों के लिए इस अमीर मायके का मतलब सिर्फ़ इतना ही होवे है कि ससुराल में सास-जेठानी ताने दें तो मायके का रौब झाड़ सकें… समझ आई. बस बहस करवा लो इस छोरी से’
हाँ, हाँ जब भी कोई ढंग का सवाल कर देती हूँ, तो माँ ये ससुराल बीच में ले आती है. जानती हूँ मैं कि मुझे तो खुद को साबित करना ही पड़ेगा ना. छोरियां अगर एक बार भी कहीं गिरें, तो फिर से चलने का मौका ना मिलता.
'इतना चहक रही है, ऐसा क्या मिल गया स्कूल में तुझे.’
‘कुछ ना भैया… बस क्लास में फिर से टॉप किया है. देख कितने अच्छे नंबर आये हैं मेरे.’
पूरी बत्तीसी निकालते हुए, भैया के हाथ में रिजल्ट थमा दिया. वैसे तो बहुत कम ही मेरी तारीफ़ करता है पर ये तो ख़ुशी की बात है ना.
‘अरे वाह, बढ़िया, चल जा तू घर जा.. मैं शाम को आऊंगा तो मेले घुमने चलेंगे.. वहां जलेबी खिला दूँगा तुझे.’
हाँ, घर की ही तो जल्दी है अब बस, घर जाके सबको खुश कर दूँ। फिर माँ से कहकर बड़ी माँ का दुपट्टा भी मांग लुंगी, हाय! वो किनारी वाला दुपट्टा। आज से दशहरे का मेला शुरू होगा। शाम को जल्दी से तैयार होकर चली जाऊँगी। और आज तो कोई कुछ कहेगा भी नहीं, पूरी क्लास में टॉप किया है मैंने भई। माँ तो चार दिन तक इतरा-इतरा कर ये बात सबको बताएगी और पापा भी, भले ही जताते नहीं हैं पर मुझे पता है कि पीछे से तो मेरी बड़ाई करते ही होंगे।
मन में ख़ुशी के लड्डू इतने फूट रहे थे कि क्या ही कहूँ। बस अब माँ दिख जाए कहीं। पर ये सारा घर है कहाँ। ‘माँ…. माँ… ‘
ये सब ने बाबा के कमरे में डेरा क्यों लगा रखा है? ओह, आज तो बुआ भी आई होंगी, इसलिए . सबको साथ में बताती हूँ रिजल्ट, फिर तो वाहवाही ही मिलेगी। कमरे में घुसी ही थी कि, ‘माँ.. देखो मेरा रिजल्ट…’
'तपाक'
कुछ समझती, पर उससे पहले ही माँ ने एक और जोरदार तमाचा गाल पर रसीद कर दिया. बाल तो जैसे बिखर ही गये और मैं बस आँखों में आँसू लिए सबको देख रही थी. सबकी नज़रें भी मुझ पर ही थी, जैसे मेरा ही इंतज़ार हो और रिजल्ट का पन्ना, वो तो कहीं हवा हो गया…
'इसलिए, स्कूल भेजते हैं तुझे, यही पढ़ाते हैं स्कूल में। अरे, इसकी माँ तो किसी काम की नहीं, पर अम्मा तुमने तो ख्याल करना चाहिए ना और भैया, छोरी पर लगाम कसो. पता नहीं और क्या-क्या दिन दिखाएगी’
बुआ ताने तो ऐसे दे रही थी, जैसे उनके गहने चुरा लिए हों और माँ… अरे मुझे मार भी रही है और फिर खुद भी रो रही है. पापा ने तो देखा भी नहीं मेरी तरफ और बाबा को देखकर तो लग रहा था कि जान ही ले लेंगे... और बड़ी माँ.. वो तो, एक मिनट… ये बड़ी माँ कैसे चुप हैं.
पर, आख़िर हुआ क्या है? बहुत हिम्मत करके पूछा और इस सवाल के जवाब का तमाचा तो माँ के थप्पड़ से भी तेज पड़ा.
तो हुआ यूँ कि किसी कम्बख़्त और अव्वल दर्जे के वाहियाद लड़के ने मेरी किताब में अपने अरमानों का पुलाव मतलब कि 'प्रेम-पत्र' रख दिया था। जो मुझसे रूबरू होने से पहले आदरणीय बुआ जी के हाथों में पहुँचा, और फिर... फिर क्या, न मेरा मुकदमा सुना गया और ना ही दलीलें, सीधे फ़ैसला कि जरूर ‘मेरा कोई चक्कर है’ और सज़ा सुना दी गयी।
'यही सिखाएगी बेटी को, अरे, मैं कहती हूँ कि दसवीं पास होते ही ब्याह कर दो इसका, कहीं हाथ से निकल गयी बात तो फिर खिसियाते रहना'
कमरे में खिड़की पर बैठे-बैठे बुआ की ये बातें सुनकर लगा कि वाकई औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है। जो उन्हें नहीं मिला वो उनकी अगली पीढ़ी को कैसे मिल जाये... आख़िर 'आज़ादी' कोई बेमोल तो नहीं, जो हम निःस्वार्थ किसी को खैरात में दे दें।
गुस्सा तो सबसे ज्यादा उस कम्बख़्त लड़के पर आ रखा था, कि आख़िर किस ने मुझ पर ये मेहरबानी की है। एक बार पता चल जाये, तो उसका खून ही कर दूँ, क्योंकि अब किसी का खून करूँ या फिर घरवाले मेरे सपनों को आग लगाकर फेरे करवा दें, फांसी तो मुझे ही होनी है। कहाँ सबको अपना रिजल्ट बताकर खुश करने का इरादा था और कहाँ ये सब। अब मेले में जाना तो भूल ही जाओ, और बड़ी माँ का वो किनारी वाला दुपट्टा, वो तो भूल ही जाओ.. सपने में भी ना मिलेगा।
क्या-क्या अरमान थे और क्या हो गया। मैं सोच ही रही थी ये सब, कि अचानक दरवाजा खुला और सामने खड़ी थीं बड़ी माँ!
हाँ, अब तक ये कैसे चुप हैं, अब बाकी लोगों ने पेशी से रिहा किया है तो ये आ गयीं, जेलर साहिबा. भई, अब ये क्यों पीछे रह जाएं, जरा सी चाय में चीनी ऊपर-नीचे हो जाये, तो मेरे लिए तानों के पूल बाँध देती हैं. लगा ही था कि इनकी तबीयत तो ठीक है जो अब तक चुप हैं। लो आ गई, रही-सही कसर पूरी करने।
अब सफाई देना तो फ़िज़ूल ही था, पर फिर भी नज़रें झुका कर हौले से कहा, 'मैंने नहीं किया ये, बड़ी माँ!'
"जानती हूँ, तूने ना किया"
हैं, मतलब.... बड़ी माँ, एक पल को तो यकीन ही ना हुआ कि ये शब्द बड़ी माँ ने कहे हैं. मुँह खुला का खुला रह गया और आँखे हैरानी में बड़ी-बड़ी गोटी जैसी हो गयी, लगा कि सपना तो नहीं है न। मैं कुछ जवाब दूँ, उससे पहले ही उन्होंने हाथ पकड़कर बिठा दिया पलँग पर और खुद भी बैठ गईं मेरे साथ।
"तेरी कोई गलती ना है और सच कहूँ तो उस लड़के की भी ना है। उसने तो बस वही किया जो उसके जी में आया। ये उम्र ही ऐसी होती है। दिल बस जहान जीत लेना चाहता है। सही-गलत, ऊँच-नीच, घर-परिवार, मान-मर्यादा….. किसी की कोई फ़िक्र ना होती, कोई डर न होता है इस उम्र में. अरे यही उम्र तो बताती है कि तुम डरपोक रह जाओगे या फिर बग़ावत की आग बनोगे।
और पता है ये उम्र जी लेनी चाहिए क्योंकि ये उम्र सिर्फ़ आज नहीं, पर हमारा आने वाला कल भी तय करती है।"
पहली बार... पहली बार बड़ी माँ को इतने पास से देखा मैंने। सच में, मैं तो कभी उनसे नज़रें मिलाकर भी बात नहीं कर पाती और आज बस उनकी आँखे ही देख रही थी…मुझे ये सब कहते हुए उनकी आँखों की वो चमक…
"पता है छोरी, कि तुझे उस खत के बारे में भी कुछ बेरा ना है, है ना"
मैंने बस ‘हाँ’ में सिर हिलाया, पर इनको कैसे पता?
"क्योंकि अगर उस खत के बारे में तुझे पता होता और तेरे दिल में कुछ ऐसा होता… तो तू इतनी बेपरवाही से वो ख़त यूँ ही बैड पर फैली किताबों के बीच ना छोड़कर जाती। यूँ ही वो किसी के हाथ ना लग जाता। बल्कि, तू हर वक़्त उसे खुद के पास रखती या फिर ऐसे छुपाती, कि जहाँ वो ढूंढ़े से भी ना मिले। और जब सब रात को सो जाते, तो पढ़ाई के बहाने, कॉपी के बीच में रखकर उसे पढ़ती, बार-बार पढ़ती और फिर, कभी मुस्कुराती तो कभी खुद में ही शर्माती... प्यार की निशानी कुछ ऐसी ही होती हैं छोरी…. दिन, माह, साल... कि उम्र चली जाती है मन की दीवारें घिसते-घिसते, पर उस निशानी की छाप नहीं जाती।"
पहली बार... बड़ी माँ की आँखों में ये चमक, ये नूर देखा था मैंने। वरना, ताऊ जी के गुजरने के बाद तो जैसे बड़ी माँ मुस्कुराना ही भूल गई। और उनके चेहरे का ये सुकून, नया नहीं है मेरे लिए… पर ये सुकून कभी ताऊ जी के रहते भी ना था उनके चेहरे पर।
हाँ, मैंने कई बार ये सुकून उनके चेहरे पर देखा है, जब भी वो उस दुपट्टे को देखती हैं, तब ऐसे ही तो मुस्कुराती हैं। पर फिर उन्होंने उस दुपट्टे को कभी ओढ़ा क्यों नहीं। कितनी बार ताऊ जी ने भी तो कहा था उनसे, पर कोई ना कोई बहाना बनाकर टाल देती थीं। आज लगा कि जिस बड़ी माँ को मैं जानती हूँ, वो कोई और है... और ये औरत, जो मेरे सामने बैठी, बातें तो मुझसे कर रही है पर ना जाने किन ख्यालों में खोई है और खुद में ही, मुस्कुरा रही है… ये औरत, कोई और है।
ये औरत, तो मेरी हमउम्र, एक अल्हड़-सी लड़की है शायद, जो आज मेरी ज़िन्दगी में झाँक कर अपना कोई अधूरा ख़्वाब पूरा कर लेना चाहती है।
"ऐसे क्यों देख रही है जैसे पहले कभी ना देखा"
मैंने झट से आँखे नीचे कर ली और वो मुझे देख कर मुस्कुराई.
सच में, पहले कभी नहीं देखा। उनका मुझे देख कर इतने प्यार से मुस्कुराना और फिर मेरे सिर को सहलाना, ये बड़ी माँ ही हैं या फिर मेरी कोई सहेली, जो आज मेरी किताब के पन्नों में, अपने किसी किस्से को छोड़कर 'आज़ाद' हो गयी।
"चल जा, जाकर चाय बना दे, सांझ हो गयी है और तूने भी तो कुछ ना खाया। रसोई में कुछ खा भी लिए।"
इतना कहकर वो चल दीं। मैं उठने ही लगी थी कि देखा, बड़ी माँ फिर दरवाजे पर रुक गईं हैं... लगा मुझे कि शायद और भी कुछ कहना है उन्हें.
"चाय बनाकर तैयार हो जाना। दशहरे के मेले भी तो जाना है, मैं कह दूंगी अम्मा से कि तू भी चलेगी।"
मैंने बस मुस्कुरा कर सिर हिलाया, ‘जी, बड़ी माँ..’
"और सुन…”
मैं एकटुक उनकी तरफ देख रही थी और सोच में थीं कि आज किस किस्से पर पूर्ण विराम लगा, बड़ी माँ मेरी ज़िंदगी में कौन-सा नया आगाज़ करने वाली हैं. पर वो, वो तो बस मुस्कुराई और बोलीं,
“मेरी अलमारी से वो दुपट्टा ले लियो, तेरे नीले सूट पर बढ़िया लगेगा’
‘हाँ…. दुपट्टा’
‘हाँ, जचेगा तुझ पर…. वो लाल "किनारी वाला दुपट्टा!"

वो लहरिया… हाय! कितने खिले-खिले से रंग है उसमें…
वो… पतली-पतली, खुबसूरत-सी लाल किनारी
यार, वही वो,  बड़ी माँ का; ‘किनारी वाला दुपट्टा’
कितना मखमली कपड़ा है उसका,
रेशम की कढ़ाई है उसपर…..

Friday, December 28, 2018

हम हैं अभी, मिस बेकर



कभी-कभी लगता है कि अगर वो ग्रेजुएशन के 
आखिरी साल के उन कुछ आखिरी महीनों में
मैं और तू... अरे मतलब 'हम'... 
वो करोल बाग़ की सड़कें न छानते 
या फिर
वो चाय वाले का मेनू याद है
मस्त था ना.
अरे यार, चाय...
मुझे लगता है चाय और हिंदी...
इन दो चीज़ों ने दोस्ती के रंग को और गहरा कर दिया
और वैसे भी हम दोनों की पहली मोहब्बत है चाय 
और बाकी सब ... 'दूसरा फैसला' है
हमारी वो ख्वाहिशें... 
जिनका पुलाव जेएनयू की कैंटीन में पकना शुरू हुआ 
और अभी भी सफरनामे पर है क्योंकि...
ख्वाहिशों का सफर शायद मंजिल से भी ज्यादा खुबसूरत है
है ना!
एचसीयू की बातें नहीं करूंगी 
क्योंकि...
फिर वक़्त जैसे रुक ही जाएगा 
पर कलम चलती रहेगी
अभी के लिए बस इतना ही कि 'शुक्रिया'
शुक्रिया...
कभी-कभी मुझ पर मुझसे भी ज्यादा भरोसा करने के लिए
और कुछ हद तक मुझे मेरे बारे में सोचना सिखाने के लिए
मिस बेकर या फिर मिस क्वीन पटेल.. 
"ना जन्म से, ना रक्त से
कुछ रिश्ते मिल जाते हैं वक़्त से"
माना कि तुम बहुत मजबूत हो... 
माना कि तुम्हें खुद को संभालना आता है 
मान लिया मोहतरमा कि 
'तुम... तुम हो'
पर फिर भी बस इतना ही कहना है कि 
अगर कभी पलकें छलकना चाहें 
तो याद रखना कि मैं हूँ...
अगर कभी चलते-चलते थक जाओ 
तो याद रखना कि मैं हूँ...
और जब दिल ढेर सारी बातें करना चाहे तो... 
मैं सुनने में भी अच्छी हूँ
पता तो होगा ही तुम्हे.
बस तू याद रखना कि
मैं हूँ अभी... तुम हो अभी 
और इसलिए 
'हम' हैं अभी!

Thursday, August 9, 2018

रंगमंच (थिएटर)



निराली है चेहरे की रंगत,
जाने कैसे,
वो इतना खुश रहते हैं,
अच्छी लगती है 
वो तालियों की आवाज,
जिसे वो जिंदगी कहते हैं,
भीड की अजीब-सी खलिश में भी
वो ढूँढ लेते हैं अपना हिस्सा,
चौराहे का तमाशा,
गलियों की कहानी या
नुक्कड का किस्सा,
सबके लिए हैं ये सिर्फ भागती-सी जिंदगी का जरा सा अंश,
पर जनाब,
उनका क्या,
जिनकी जिंदगी है बस यही रंगमंच!

Saturday, August 4, 2018

खुद को कहीं खो रही हूँ शायद


भीड़ में भी न जाने क्यों अकेली-सी हूँ 
ये उम्र ऐसी है या फिर कोई बदलाव 
पर आजकल खुद के लिए ही पहेली-सी हूँ 
मैं मुस्कुराती हूँ 
पर खुश नहीं 
लगता है 
अपने में ही रो रही हूँ शायद 
खुद को ही कहीं खो रही हूँ शायद 
रेत के जैसे 
कभी हौले-हौले 
तो कभी तेजी से 
मुट्ठी से मेरी 
फिसल रही है ज़िन्दगी 
ना ख्वाहिश हैं
ना कोई शिकायतें
मानो उम्मीदों से भी 
दूर हो रही हूँ शायद 
खुद को ही कहीं खो रही हूँ शायद 






Tuesday, July 3, 2018

मेरा घर


पता भी नहीं चला
कब, कैसे और क्यों 
तुम दोस्त से घर बन गए 
हाँ, घर वो घर जिसमें सुकून है 
वो घर जहां मुस्कराहट के साथ आंसू भी हैं 
लेकिन सच कहूं 
इस घर में रोना भी मुझे बुरा नहीं लगता 
ना तो कभी मिस नौटंकी के मजाक बनाने का बुरा लगा 
ना कभी मिस क़्वीन बेकर के तानों का 
और डोरेमोन, उस पर तो सिर्फ प्यार ही आया 
क्लासमेट्स, बैचमेट्स या होस्टलमेट्स 
जाने कितने रिश्ते बांटें हैं 
और अब देखों हम खुद ही बंट गए 
शहरों में 
पर फिर भी हम अलग नहीं हुए 
आज भी मेरे हाथ ऑइलिंग करना मिस करते हैं 
सब चीज़े हैं मेरे पास 
पर पता है मैं खुद को स्क्रब तक नहीं कर पाती 
चॉकलेट्स खरीदने से पहले 
न जाने कितनी बार सोचती हूँ 
और चाय 
मैं चाय सिर्फ इसलिए नहीं पीती 
कि मुझे चाय पसंद है 
मैं पीती थी क्योंकि
उसमें मिस बेकर की हंसी घुली थी  
मेरी नौटंकी के ताने 
और डोरेमोन का सरकेज़म 
और अब चाय सिर्फ पीने के लिए पीती हूँ 
तैयार होने के लिए भी खुद को कितनी बार मनाना पड़ता है 
मेरे लिपस्टिक लगाने पर कोई मुहं बनाने वाला नहीं है ना 
कपडे शेयर करने वाला कोई नहीं है 
और ना ही कोई अब आयरन के लिए आता है 
क्या सच में यही होता है सबके साथ 
क्या सच में सब दोस्त ऐसे ही बंट जाते हैं 
इस बार जब पीरियड्स हुए,
तो, सबसे पहले 
फ़ोन पर हाथ गया, मिस बेकर का नंबर जो मिलाना था 
सच कहूं तो इस बार दर्द पीरियड्स से ज्यादा
तेरा मेरे साथ ना होने का था 
डी-मार्ट 5 मिनट भी दूर नहीं 
पर अब जाने का मन नहीं करता 
अब धीरे-धीरे अकेले खाना खाने की आदत हो रही है 
और शायद मैं अकेला रहना सीख रही हूँ 
मेरी पड़ोसन को कहना कि 
बहुत मिस करती हूँ 
उसका मेरे कमरे में ना आना 
उसकी सीरीज के किस्से 
उसके रोमांस के सपने और 
उसका सवाल 
"और मैडम, हीरो कैसा है तेरा?"
हीरो तो हमेशा से ही अच्छा था 
पर मैं उसकी हीरोइन नहीं शायद 
हाँ, मेरी अचीवमेंट तो 'जगत माता' होना है ना 
या फिर छम्मो और लाली-लिपस्टिक 
जो भी हो,
हर बदलाव आपको कुछ नया सिखाता है 
मैं भी सीख रही हूँ, बस शायद अकेले 
वैसे, 'अहमदाबाद' इतना भी बुरा नहीं है 
पर इस शहर से प्यार नहीं हुआ अभी तक 
जैसे दिल्ली और हैदराबाद से है 
क्योंकि इस शहर में घर नहीं बना अभी तक 
क्योंकि मेरे घर से भी एक अलग घर
तुम्हारे साथ है ना। 



Saturday, June 23, 2018

Why can't you love me?


The person, whom I love
Unconditionally,
without having any expectations
Yes, I have never expected any relationship from you
I have never expected priority from you
I just love you
Unconditionally,
That's all I can do
You're special,
Not because I love you
You're special
Because I have crossed my thresholds for you
I have done things, which I have never dreamt off
I have crossed all my social boundaries for you
This love made me vulnerable and strong as well
the more you pushed me away from you
the more I want to care for you
Unconditionally,
I hope, someday, somewhere, 
if we meet again
And if
you give me this right
to ask you just one thing
Why can't you love me?

Wednesday, June 6, 2018

वो बेटी है

Manjulata (Literacy India NGO)


अपना घर चलाना ही, 
उसके लिए कर्म है,
और अपने काम में ईमानदारी, 
यही उसका धर्म है 

मीलों की दूरी को 
हौंसलों से नाप लेती है,

अपनी साइकिल को ही 
हवाई जहाज मान लेती है...

गिरती-संभलती, 
हर पल से कुछ सिखती, 

पूरे दिल से मुस्कारती है,
बेटा नहीं, बेटे जैसी नहीं, 

जनाब,

वो बेटी है, 
इसलिए जिंदगी को जिंददिली से निभाती है 

Wednesday, May 30, 2018

मुलाकात

तुम और मैं.... 

अरे हाँ, मैं और तुम,
चलो आज एक सौदा करते हैं,
अजनबी के जैसे फिर से मिलते हैं,
क्या पता, 


कहानी का रुख बदल जाए 
शायद वो मुलाकात वाला मोड़ ही ना आए, 
और हम,


एक-दुजे से अनजाने ही रह जाए,
तो चलो, 


नयी शुरूआत करते हैं 
अजनबी के जैसे फिर से मिलते हैं।

रविवारी- हर चेहरे में कहानियों का बाज़ार

रविवारी बाज़ार में खींची गयी एक तस्वीर रविवारी....  जहां आपको घर से लेकर बाजार की हर छोटी बड़ी चीजें मिल जाएंगी,  जहां आप किताब...