Saturday, August 4, 2018

खुद को कहीं खो रही हूँ शायद


भीड़ में भी न जाने क्यों अकेली-सी हूँ 
ये उम्र ऐसी है या फिर कोई बदलाव 
पर आजकल खुद के लिए ही पहेली-सी हूँ 
मैं मुस्कुराती हूँ 
पर खुश नहीं 
लगता है 
अपने में ही रो रही हूँ शायद 
खुद को ही कहीं खो रही हूँ शायद 
रेत के जैसे 
कभी हौले-हौले 
तो कभी तेजी से 
मुट्ठी से मेरी 
फिसल रही है ज़िन्दगी 
ना ख्वाहिश हैं
ना कोई शिकायतें
मानो उम्मीदों से भी 
दूर हो रही हूँ शायद 
खुद को ही कहीं खो रही हूँ शायद 






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