Saturday, May 4, 2019

शहर बनते देखा है



एकड़ में नपती ज़मीन को, per square foot में 
आसमान-सी छत को, गज़ भर बालकनी में 
और बड़े-से खुले आँगन के सीने पर 
फ्लैट्स वाली ऊँची इमारतें बनते देखा है 
धरती की गोद में सोना उगाने वालों को 
दिहाड़ी-मज़दूरी के लिए भटकते देखा है 
और अन्नदाता को भूखे मरते देखा है 
जहाँ पैरों से धूल उड़ा 
मिट्टी की खुशबू लिए फिरते थे 
गाँव की उसी मिट्टी से 
मैंने शहर को बनते देखा है 




(Image Courtesy: Down to Earth Magazine)

3 comments:

  1. शहर बनाने के बाद भी मुझे गांवो का अपनापन वाला मिज़ाज़ आज भी न मिला

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  2. शानदार कविता, सच्चाई को कितनी खूबसूरती से शब्दों में पिरो दिया आपने। और उस स्थिति को जो गाँव के लोग किसान जिनकी जमीन पर अट्टालिकाएं खडी हो जाती हैं उस हालात में पल भर ही सही जीने का अवसर मुहैया कर दे रही हैं ये पंक्तिया। आप अपने लेखन में मौजूद इस खास किस्म को हमेशा बरकरार रखियेगा।

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  3. बटुकेश्वर दत्त पर लिखा आपका आर्टिकल पढ़ा, काफ़ी अच्छा लिखा है | कृपया इसी तरह लिखते रहे!!

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