Thursday, August 9, 2018

रंगमंच (थिएटर)



निराली है चेहरे की रंगत,
जाने कैसे,
वो इतना खुश रहते हैं,
अच्छी लगती है 
वो तालियों की आवाज,
जिसे वो जिंदगी कहते हैं,
भीड की अजीब-सी खलिश में भी
वो ढूँढ लेते हैं अपना हिस्सा,
चौराहे का तमाशा,
गलियों की कहानी या
नुक्कड का किस्सा,
सबके लिए हैं ये सिर्फ भागती-सी जिंदगी का जरा सा अंश,
पर जनाब,
उनका क्या,
जिनकी जिंदगी है बस यही रंगमंच!

Saturday, August 4, 2018

खुद को कहीं खो रही हूँ शायद


भीड़ में भी न जाने क्यों अकेली-सी हूँ 
ये उम्र ऐसी है या फिर कोई बदलाव 
पर आजकल खुद के लिए ही पहेली-सी हूँ 
मैं मुस्कुराती हूँ 
पर खुश नहीं 
लगता है 
अपने में ही रो रही हूँ शायद 
खुद को ही कहीं खो रही हूँ शायद 
रेत के जैसे 
कभी हौले-हौले 
तो कभी तेजी से 
मुट्ठी से मेरी 
फिसल रही है ज़िन्दगी 
ना ख्वाहिश हैं
ना कोई शिकायतें
मानो उम्मीदों से भी 
दूर हो रही हूँ शायद 
खुद को ही कहीं खो रही हूँ शायद 






रविवारी- हर चेहरे में कहानियों का बाज़ार

रविवारी बाज़ार में खींची गयी एक तस्वीर रविवारी....  जहां आपको घर से लेकर बाजार की हर छोटी बड़ी चीजें मिल जाएंगी,  जहां आप किताब...